आर्य वीर दल का इतिहास
किसी भी राष्ट्र , जाति और संस्था का इतिहास उसका आधार-स्तम्भ होता है । भावी पीढ़ी उससे प्रेरणा लेकर कर्तव्य-पथ पर आगे बढ़ती है । परिस्थितियों के प्रतिकूल हो जाने के कारण दैन्यावस्था में भी उसका मनोबल नहीं गिरता और वह पुनः अंगड़ाई लेकर खड़ी हो जाती है। इसके विपरीत इतिहास को विस्मृत करके समुन्नत लोग भी कालान्तर में मार्गदर्शक और आदर्श सामने न रहने से अपने पद से विचलित होकर अन्यों का अन्धानुकरण करने लगते हैं। किसी का मानस बदलना है तो उसके पूर्वजों के इतिहास में उलटफेर करके उन्हें असभ्य, बर्बर , बुद्धिहीन और अयोग्य घोषित कर दीजिए जिसके परिणामस्वरुप उस राष्ट्र या जाति का मनोबल गिरने में देर नहीं लगेगी ।
जब भी कोई जन-जागरण आन्दोलन या कोई संगठन अस्तित्व में आता है तो उसके पीछे तात्कालिक परिस्थितियाँ ही मुख्य कारण होती हैं।
सामाजिक बुराइयों को अहिंसात्मक ढंग से दूर करने वाले संगठन भी आगे चलकर आक्रामक या अपनी सुरक्षा के लिए सावधान अथवा राजनीतिक संस्था में परिणत हो जाते हैं ।उदाहरणार्थ सिखों की प्रथम गुरु नानक देव जी मानवता के उपासक और एक निराकार ईश्वर के भक्त थे। आगे चलकर दशम गुरु गोविन्द सिंह जी का जीवन संत सिपाही में बदल गया । कूका आंदोलन और सतनामी साधुओं का औरंगजेब के विरुद्ध शस्त्र उठाना भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। जब अत्याचार चरम सीमा तक बढ़ जाए तो शान्त और निरीह दिखने वाले प्राणी भी आत्मरक्षा के लिए ताल ठोक कर खड़े हो जाते हैं ।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है –
अति संघर्ष करे जो कोई ,प्रकट अनल चन्दन से हुई।
आर्य वीर दल की स्थापना
महर्षि दयानन्द सरस्वती के खण्डन खड्ग के प्रबल प्रहार और क्रांतिकारी अभियान से पौराणिकों , मुसलमानों और ईसाइयों में खलबली मच गी । वे सभी एक मत होकर इस क्रान्ति की ज्वाला को बुझाने के लिए दौड़े, परंतु वह अग्नि शान्त न होकर दिन- रात बढ़ती ही गयी ।
स्वामी जी के बलिदान के पश्चात् उनके अनुयायी और भी अधिक उत्साह के साथ पाखण्ड का निवारण और अन्य मतावलम्बी दुर्गों को ध्वस्त करने में लग गये। उनके तर्क के तीरों के सम्मुख विपक्षियों को मैदान छोड़ना ही पड़ा अन्य बचाव का साधन न देख कर उन्हें इस आंदोलन के कर्णधार महापुरुषों के प्राण लेने का षड्यंत्र रचा। अमर शहीद पण्डित लेख राम ,स्वामी श्रद्धानन्द,महाशय राजपाल इसी कुचक्र के शिकार हुए।
इधर आर्य समाज के सुधारात्मक जन आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखकर अंग्रेजी सरकार भी सशंकित हो गी । वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अभी भूल नहीं पाई थी ।अतः योजना अनुसार आर्यों को परेशान करना , अन्य मतावलम्बियों को प्रोत्साहन देना और साम्प्रदायिक द्वेष को भड़काना प्रारम्भ कर दिया गया । दिनों- दिन साम्प्रदायिकता और बैर- विरोध की यह भावना बढ़ती ही गी । आर्य समाजों के उत्सव पर निकल जाने वाली शोभा यात्रा पर मस्जिदों से आक्रमण होने लगे ।
सरकार भी ऐसे अवसर पर उल्टा चोर कोतवाल को डांटे के अनुसार उपद्रवियों का पक्ष- पोषण और दंगे-फसाद का बहाना बनाकर आर्यों की शोभायात्रा पर ही प्रतिबन्ध लगने लगी। सन् 1926 के दिसम्बर मास में एक धर्मान्ध मुस्लिम युवक ने स्वामी श्रद्धानन्द को गोलियों का निशाना बना डाला। हत्यारा अब्दुल रशीद पकड़ा गया और न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई। उसकी शव यात्रा में लाखों मुसलमान सम्मिलित हुए। इस कार्य ने अग्नि में घी डालने का कार्य किया। यद्यपि डॉक्टर अंसारी जैसे राष्ट्रवादी मुस्लिमों ने स्वामी जी की हत्या किए जाने की निन्दा भी की थी। ऐसी विषम परिस्थिति में सन् 1927 में दिल्ली में सर्वप्रथम आर्य महासम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें यह प्रस्ताव स्वीकृत किया गया कि वर्तमान संकट को देखते हुए यह सम्मेलन आदि जाति के धार्मिक तथा सामाजिक अत्याचारों की रक्षा के लिए आर्य रक्षा समिति के निर्माण की घोषणा करता है।यह समिति 10000 ऐसे स्वयंसेवकों की भर्ती करें , जो धर्म रक्षा के लिए अपने प्राण तक अर्पण करने के लिए सदा उद्यत रहें ।यह समिति अपने कार्य के लिए स्वयं अपने नियम बनाये और सार्वदेशिक सभा की अनुमति से सब उपायों,जिनमें सत्याग्रह भी शामिल है, का अवलम्बन करें ।
महात्मा नारायण स्वामी को आर्य- रक्षा समिति का प्रधान घोषित किया गया । उन्होंने कहा कि 10000 स्वयंसेवक भर्ती करने का उत्तरदायित्व मैं लेता हूँ । इस प्रस्ताव के प्रस्तुत होने पर आर्य जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गी । स्वामी ब्रह्मानन्द जी आचार्य गुरुकुल भैंसवाल और स्वामी परमानन्द जी आचार्य गुरुकुल झज्जर ने एक-एक हजार तथा पण्डित रामचन्द्र पुरोहित आर्य समाज चावड़ी बाजार दिल्ली ने 2-3मास की अवधि में इतने ही आर्य वीर भर्ती कर दिए । पंजाब और उत्तर प्रदेश के आर्यों ने भी इस कार्य में बहुत सहयोग दिया । 10000 से भी अधिक आर्य वीरों की भर्ती हो जाने के पश्चात् आर्य रक्षा समिति ने निर्णय लिया कि दिल्ली सम्मेलन में स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार समिति का नाम आर्यवीर दल रखा जाये। 26 जनवरी 1929 को समिति की बैठक हुई और उसमें आर्य- रक्षा समिति तथा आर्य वीर दल दोनों के नियम स्वीकार किए गये ।
पहले सुरक्षा को ही ध्यान में रखा गया था परन्तु बाद में सामाजिक कार्यों की आवश्यकता को अनुभव करते हुए 12 दिसंबर 1928 को सामाजिक सेवा सम्बन्धी नियमों का समावेश भी किया गया ।
8 दिसंबर 1936 को इन नियमों में आवश्यक संशोधन भी कर 12 मार्च 1938 को उन्हें लागू कर दिया गया ।
आर्य वीर दल की प्रगति
आर्य- रक्षा समिति के सहायक मन्त्री श्री शिवचन्द्र जी को आर्यवीर दल के संगठन की जिम्मेदारी दी गी । उन्होंने आर्यवीर दल के कार्यों में गति लाने के लिए आर्यवीर दल सम्मेलनों का आयोजन करने की योजना बनायी । सन् 1937 ई० में आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त ( उत्तर प्रदेश) का अर्द्धशताब्दी सम्मेलन मेरठ में आयोजित किया गया । इसी अवसर पर वहाँ आर्यवीर दल सम्मेलन भी किया गया । श्री शिवचन्द्र के पुरुषार्थ से मेरठ , मुरादाबाद, चन्दौसी, बरेली, हरदोई, लखनू, फैजाबाद, बनारस, मिर्जापुर, इलाहाबाद, फतेहपुर, कानपुर आगरा, इन्दौर और शाहजहाँपुर ( ग्वालियर ) में आर्य वीर दल की स्थापना हो गयी ।
दिल्ली में आर्य वीर दल की स्थापना सन् 1927 में हुई । जब दिल्ली में प्रथम आर्य महासम्मेलन में आर्य- रक्षा समिति की स्थापना का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था , तभी आर्यवीर दल का गठन भी कर लिया गया ।आर्य वीर दल ने स्थापना के प्रारम्भ से ही गुण्डा तत्वों को आडे़ हाथों लिया । आर्यवीर दल जब चाँदनी चौक से पथ-संचलन करते हुए निकलते थे तो असामाजिक तत्व भयभीत हो जाते और जनता पर आर्य वीर दल की धाक जमती चली गयी । सर्वत्र क्षात्र धर्म का प्रचार- प्रचार होने से आर्य नेताओं पर होने वाले हमले रुक गे। सिंहों की दहाड़ सुनकर गीदड़ मांदों में जा छिपे। हिन्दू एवं आर्यों के उत्सव, मेले, शोभा यात्रा आदि कार्य निर्विघ्न संपन्न होने लगे ।
गढ़मुक्तेश्वर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है । यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान का मेला लगता है , जहाँ लाखों श्रद्धालु नर- नारी प्रतिवर्ष एकत्र होते हैं। दिल्ली के आर्यवीर इस मेले में यात्रियों की सेवा और गुण्डों से सुरक्षा करने के लिए जाते रहते हैं ।
पानीपत में आर्य समाज के नगर- कीर्तन पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने पर दिल्ली आर्यवीर दल ने बहुत परिश्रम किया । अन्य स्थानों से आर्य समाजों एवं आर्यवीर दल के जत्थे पानीपत पहुँचने प्रारम्भ हो गये । दिल्ली से भी सत्याग्रहियों के जत्थे पहुँचने लगे आर्यवीरों के इस आत्म- बलिदान देने की तैयारी को देखकर सरकार को झुकना पड़ा । पानीपत आर्य समाज का नगर- कीर्तन धूमधाम से सम्पन्न हुआ ।
हैदराबाद का सत्याग्रह
दक्षिण में हैदराबाद एक बड़ी रियासत थी जिसका नवाब 90% हिंदू जनता पर मनमाने अत्याचार करता था। उसने हिन्दुओं के मन्दिर बनवाने, शोभा यात्रा, यज्ञ, हवन आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया और हर हथकण्डा अपना कर हिन्दू जनता का मान मर्दन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दुओं पर होते अत्याचार के समाचारों को जानकर सन् 1934 में श्री शिवचन्द्र जी वहां पहुंचे और हिन्दू जनता को जागृत करना प्रारम्भ किया तथा नवाब के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया।
नवाब की पुलिस ने इन आर्य वीरों को पकड़ कर जेल में डाल दिया। उनसे मैला ढोने का काम करवाया । कितने ही आर्यवीर जेल में शहीद हो गये । उदगीर के भाई श्यामलाल का जेल में ही प्राणान्त हो गया । हुतात्मा वेद प्रकाश , कृष्ण राव ईटेकर, धारूर के काशीनाथ आदि नवयुवक धर्म पर बलिदान हो गये।स्थिति जब नियन्त्रण से बाहर होती दिखाई दी तो सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्वावधान में समस्त आर्यों ने हैदराबाद के नवाब के विरुद्ध सत्याग्रह का बिल्कुल बजा दिया ।
हैदराबाद सत्याग्रह का नेतृत्व सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा सम्भाल लेने के कारण आर्य- रक्षा समिति और आर्यवीर दल का कार्य धूमिल पड़ गया । परन्तु ऐसी स्थिति में भी आर्य वीर सत्याग्रह में पूर्णतया सहयोग करते रहे ।
उन दिनों कांग्रेस का आन्दोलन बढ़ने लगा था, तो गोरी सरकार ने हिन्दू और मुसलमान को आपस में लड़ाने का षड्यंत्र रचा । सन् 1938 में द्वितीय विश्व महायुद्ध छिड़ गया । भारत भी इस महायुद्ध के अछूता नहीं रहा और अराजकता की इस स्थिति में सुरक्षा का प्रश्न पुनः आ खड़ा हुआ। हैदराबाद में यद्यपि आर्य समाज की विजय हुई थी, परन्तु वहाँ के धर्मान्ध मुसलमानों का विद्वेष और भी बढ़ गया । उन्होंने खाकसारों के रूप में एक नये संगठन को खड़ा किया जो अत्यधिक सम्प्रदायवादी था । उनकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर हैदराबाद रियासत के आर्य हिन्दु भयभीत होने लगे और आर्य वीर दल का पुनर्गठन करने की आवश्यकता महसूस होने लगी।
सन् 1925 ई० में डॉ हेडगेवार द्वारा नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गी । संघ के स्वयंसेवक निश्चित गणवेश में व्यायाम करते और देशभक्ति के गीत गाते तथा समस्त हिन्दुओं को एक मंच पर संगठित होने का आह्वान करते थे ।ऐसे समय में रग- रग में देशभक्ति से पूरित आर्य सज्जनों का ध्यान संघ के प्रति आकर्षित हुआ और आर्ययुवकों को नागपुर भेजा जाने लगा। वहाँ से प्रशिक्षित होकर वे संघ के कार्य में लग गये । उनके द्वारा संघ के लिए अनुकूल वातावरण बनाने का प्रयास किया गया । आर्य समाज के मन्दिर, डी ए वी स्कूल और कॉलेजों में संघ की शाखाएं लगनी प्रारम्भ हो गयीं।आर्य समाजों में उनके कार्यर्कर्त्ताओं को कार्यालय और निवास की सुविधायें मिलने लगीं।
परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् ही आर्य जनता का संघ के प्रति मोह टूट गया। संघ के कार्यकर्ता झण्डे को गुरु बनाकर उसे नमन करते थे और मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे जिन बुराइयों ने इस देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ लिया था और जिन अन्धविश्वासों को हटाने के लिए स्वामी दयानन्द ने प्रचण्ड आन्दोलन चलाया उनके स्थान पर संकीर्ण विचारधारा अन्धविश्वास, गुरुडम और मूर्ति पूजक लोग छद्ममवेश में प्रवेश कर गये, यह बात कैसे सहन होती ? परिणाम स्वरूप आर्य समाज के नेताओं ने अपनी संस्थाओं में संघ की शाखों पर रोक लगा दी । जब उनके कार्यकर्त्ताओं से आर्य समाज एवं विद्यालयों को खाली करने को कहा गया तो संघ के उन्होंने उदण्ड व्यवहार किया तथा झगड़े किये साथ ही आर्यसमाजों की सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने में भी संकोच नहीं किया। इससे संघ का असली चेहरा प्रकट हो गया। आर्य युवक संघ से नाता तोड़कर पुनःआर्य वीर दल में प्रविष्ट होने लगे । आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब ने विधिवत् आर्य वीर दल का पुनर्गठन सन् 1940 में किया और आर्य वीर दल का पहला शिविर गुरु दत्त भवन, लाहौर में लगाया गया। इसी भांति गुरुकुल डोरली (मेरठ) में इसी वर्ष जून मास में आर्य रक्षा समिति के मन्त्री शिवचन्द्र ने अपने सहयोगियों के साथ शिविर का आयोजन किया । इस शिविर से प्रशिक्षित आर्यवीरों ने अनेक स्थानों पर आर्य वीर दल की स्थापना की ।इन कार्यों से आर्यवीर दल में नई शक्ति का संचार हुआ और धीरे-धीरे उनका कार्य क्षेत्र बढ़ता चला गया ।
श्री ओमप्रकाश त्यागी का आगमन
आर्य- रक्षा समिति के मन्त्री और आर्यवीर दल के संचालक श्री शिवचन्द्र को सार्वदेशिक सभा के द्वारा वैदिक धर्म के प्रचारार्थ दक्षिण में भेज दिया गया। उनके स्थान पर दिल्ली में अखाड़ा चला रहे एक नौजवान युवक पर पण्डित धुरेन्द्र शर्मा की नजर पड़ी । असली हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है । “ओमप्रकाश, क्या तुम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी श्रेष्ठ संगठन आर्यवीर दल को बना सकते हो? मुझे तुम्हारे भीतर अन्तर्निहित अनेक योग्यतायें नजर आ रही हैं।” नवयुवक के अन्तराल में प्रसुप्त अग्नि प्रज्वलित हो उठी और उसने तपाक से उत्तर दिया,” क्यों नहीं शास्त्री जी ?” तो आज से आर्यवीर दल का कार्य भार तुम्हारे कन्धों पर दिया जाता है ।” उस दिन कुशल मल्लाह को पाकर आर्यवीर दल की नौका समुद्र की उत्ताल तरंगों को चुनौती देती हुई अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चली ।
सन् 1942 में पण्डित इन्द्र विद्यावाचस्पति सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के मन्त्री बने ।उन्होंने आर्यवीर दल को सशक्त बनाने पर विशेष ध्यान दिया । उनकी प्रेरणा और प्रयत्न से अगस्त 1942 में आर्यवीर दल का विशाल शिविर गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में लगाया गया जिसमें विभिन्न प्रान्तों से 400 आर्यवीरों ने भाग लिया । श्री ओमप्रकाश त्यागी इस शिविर के अध्यक्ष थे तथा डॉक्टर सुखदेव जी उनका सहयोग कर रहे थे। शिविर को प्रारम्भ हुए अभी कुछ ही दिन बीते थे कि महात्मा गांधी ने “अंग्रेजों ! भारत छोड़ो” का आन्दोलन शुरू कर दिया । देश के नवयुवकों के सम्मुख अब एक ही नारा था – “करो या मरो “ हजारों युवक देश को स्वतन्त्र कराने के लिए मैदान में कूद पड़े। इसी स्थिति में आर्यवीरों के लिए शान्त रह सकना सम्भव नहीं रहा । वे भी अपनी आहुति देने के लिए उतावले होने लगे। अतः 20 अगस्त के दिन शिविर की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी । सभी आर्यवीर अपने-अपने कार्य क्षेत्र में जाकर स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। सहस्रों आर्यवीर पुलिस द्वारा जेल में डाल दिए गए। बहुतों के वारण्ट निकले और पुलिस उनका पीछा करती रही। रेल की पटरियाँ उखाड़ी गयीं और टेलीफोन के तार काट डाले गये।
अक्टूबर सन् 1942 में बंगाल के मिदनापुर जिले में भयंकर तूफान आया जिससे सैकड़ों गाँव नष्ट हो गये।लोगों के जान- माल की अपार क्षति हुई । बंगाल की आर्य-रक्षा समिति के तत्वावधान में आर्यवीर दल ने पीड़ितों की सहायता का कार्य प्रारम्भ किया और इस कार्य में उसे अनुपम सफलता प्राप्त हुई। सन् 1943- 44 में जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आजाद हिन्द सेना लेकर भारत की पूर्वी सीमा पर इम्फाल के समीप आक्रमण करने की तैयारी कर रहे थे तो अंग्रेज सरकार ने उनसे भयभीत होकर बंगाल से समूचे चावल को खरीद कर बाहर भेज दिया और वहाँ भयंकर अकाल की स्थिति पैदा कर दी । सरकारी आंकड़ों के अनुसार 36 लाख व्यक्ति काल के ग्रास बने। लाखों परिवार उजड़ गये। ऐसी विकट स्थिति में आर्यवीर दल ने सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा तथा प्रादेशिक सभा के साथ मिलकर अकाल राहत कार्य प्रारम्भ किया। कलकत्ता को केन्द्र बनाकर समूचे बंगाल में सैकड़ों राहत केन्द्रों की स्थापना की । लाखों रुपए का चावल, चिवड़ा, गुड, कम्बल और वस्त्र वितरित किए गये। यह कार्य पूरे एक वर्ष तक चला ।
नोआखाली हत्याकाण्ड
सन् 1946 में मुस्लिम लीग ने लड़कर पाकिस्तान लेने की घोषणा की और उन्होंने बंगाल प्रान्त की मुस्लिम लीग तथा सुहरावर्दी की सरकार के सहयोग से नोआखाली में उसका पूर्वाभ्यास किया। मुसलमानों ने वहाँ के हिन्दुओं पर आक्रमण कर दिया । उन्हें लूटा और घरों को आग लगा दी । महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनका बलात् धर्म परिवर्तन करके लड़कियों का मुस्लिम लड़कों से विवाह कर दिया गया। आर्य समाज भला ऐसी अवस्था में चुप कैसे बैठ सकता था? सार्वदेशिक सभा ने आर्यवीर दल को वहाँ सेवा और रक्षा कार्य के लिए श्री ओमप्रकाश त्यागी को चुने हुए आर्यवीरों के साथ भेजने का आदेश दिया। उनके नेतृत्व में पंजाब,राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से 300 चुने हुए आर्यवीर पहुंचे। वहाँ जाकर रेलवे स्टेशन से उतरकर उपद्रवग्रस्त क्षेत्र में अपना शिविर लगाने से पूर्व बम विस्फोट किया। मुस्लिम लीग के गुण्डों को यह समझते देर नहीं लगी कि यह घटना कुछ और ही संकेत कर रही है। उनकी हिम्मत उधर भटकने की भी नहीं हुई।
महात्मा गाँधी इन समाचारों को सुनकर बहुत चिन्तित हुए और वे भी साम्प्रदायिक उपद्रव को शान्त करने के उद्देश्य से नोआखाली गये । आर्यवीर दल ने भी अपने कर्तव्य का पालन किया ।नोआखाली में आर्यवीर दल के सेवा और सुरक्षा के कार्य का इतना प्रभाव था कि वहाँ के मुसलमानों ने गाँधी जी से शिकायत की कि आर्यसमाज के लोग छुरा- चाकू का संगठन बनाकर इधर भेज रहे हैं और मुसलमानों को मारते हैं । गाँधी जी ने इसकी जाँच करने के लिए ठक्कर बापा को भेजा । उन्होंने शान्ति का बेसुरा राग अलापा और अहिंसात्मक ढंग से कार्य करने को कहा और मानवता का पाठ पढ़ाकर चले गये । परन्तु असलियत कुछ और ही थी।
कविवर दिनकर के शब्दों में –
जो पुण्य- पुण्य बक रहे उन्हें बकने दो।
जैसे सदियां थक चुकीं उन्हें थकने दो।
पर देख चुके हम तो सब पुण्य कमाकर।
सौभाग्य मान गौरव अभिमान गंवाकर।
एक ही पन्थ अब भी जग में जीने का ।
अभ्यास करो छागियो! रक्त पीने का ।
पास में ही श्रीमती सुचेता कृपलानी के नेतृत्व में कांग्रेस का शिविर लगा हुआ था। इसके कार्यकर्त्ता अहिंसा का मिथ्या राग अलापने और आर्यवीर दल को गालियां देते थकते न थे ।
एक दिन मुस्लिम लीग के गुण्डों ने कांग्रेस के शिविर पर धावा बोल दिया और सुचेता जी के बालों को पकड़कर उन्हें घसीटते हुए अपने क्षेत्र की ओर ले जाने लगे। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के उपासक भला क्या कर सकते थे? किसी ने जाकर श्री ओम प्रकाश जी त्यागी को इसकी सूचना दी। सूचना पाकर श्री त्यागी जी सशस्त्र आर्यवीरों को लेकर गुण्डों पर टूट पड़े और उनका सारा नशा झाड़ दिया। सुचेता जी खुले बाल धुलि- धूसरित होकर भूमि पर पड़ी थीं। श्री त्यागी जी को सामने देखकर आँखों में पानी भरकर बोलीं, “भैया ! तुम आ गये?” प्रति उत्तर में उन्होंने कहा कि गुण्डों द्वारा बहन का अपमान होते देखकर महर्षि दयानन्द के सैनिक हाथ पैर हाथ रखकर कैसे बैठ सकते हैं ? ऐसे अनेक अवसरों पर अपनी जान हथेली पर रखकर आर्यवीरों ने न जाने कितनी माता- बहनों की लाज बचाई है ।
स्वराज्य की प्राप्ति से पूर्व नोआखाली जैसे साम्प्रदायिक उपद्रव उत्तर- पश्चिम सीमा प्रान्त में शुरू कर दिए गये। पश्चिमी पंजाब में हजारा, रावलपिंडी और जेहलम जिलों में , जहाँ पर मुस्लिम संख्या अधिक थी, हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार हुए। सैकड़ों स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए कुओं में छलांग लगाई। सैकड़ों युवक वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये। इस समय रावलपिण्डी, नौसहरा, मरदान आदि के आर्यवीरों ने अपनी जान पर खेल कर हिन्दुओं की रक्षा व सेवा की।
भारत विभाजन के समय आर्यवीर दल का सहायता कार्य
15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ। इससे पूर्व ही पंजाब,उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रान्त, सिन्ध और बलोचिस्तान में हिन्दुओं पर भयंकर अत्याचार होने लगे। धर्मान्ध मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं और सिक्खों का वध किया गया।मन्दिरों और गुरुद्वारों को अपवित्र कर उन्हें आग लगा दी गयी। स्त्रियों के साथ बलात्कार और लोगों का धर्म- परिवर्तन करके इस्लाम का अनुयायी बनाया गया इसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिल सकता। लाखों हिन्दू और सिक्ख अपने घरबार, संपत्ति और व्यवसायों को छोड़कर भारत आने लगे। उनके परिवार छिन्न-भिन्न हो गए बच्चे, माता-पिता और पति-पत्नी सब एक-दूसरे से सदा के लिए अलग हो गये। वे सब रोते- बिलखते अपने नये घर बसाने के लिए भारत आने लगे। ऐसी विकट परिस्थितियों में आर्य समाज और आर्यवीर दल ने शरणार्थियों की सहायता के लिए सेवा कार्य को अपने हाथ में लिया । दिल्ली, पूर्वी पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में आर्य सेवा केंद्र खोले गए। उस समय दिल्ली में अनेक सेवा समितियां और सामाजिक संगठन विद्यमान थे।आर्यवीर दल के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर उनमें ईर्ष्या के भाव जागे । उन्होंने प्रयत्न किया के दिल्ली के स्टेशन पर वह भी अपने शिविर स्थापित करके सेवा कार्य को प्रारम्भ करें परंतु सरकार ने अन्य किसी सेवा समिति को स्टेशन पर कैंप लगाने या कार्य करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि आर्यवीर दल के कार्य से सरकार पूर्णतया संतुष्ट थी। यहाँ आर्यवीर दल सिन्ध प्रान्त के प्रमुख कार्य कर्त्ता श्री नारायण राव के शौर्य का वर्णन करना अनुचित न होगा। भारत विभाजन के समय करांची और धनपतमल आर्य कन्या पाठशाला में हजारों हिन्दु शरणार्थी भारत आने की बाट देख रहे थे कि एक दिन सौ मुस्लिम गुण्डों ने उस स्थान पर आक्रमण कर दिया। उन्हें शरणार्थियों में श्री नारायण राव भी सह परिवार विद्यमान थे। श्री नारायण राव लाठियां लेकर अपने कुछ चुने हुए साथियों के साथ उनसे जूझ पड़े । दोनों ओर से जमकर लड़ाई हुई । अचानक श्री नारायण राव शहीद हो गए यह देखकर उनकी पत्नी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और वह अपनी सखियों के साथ उन शत्रुओं पर टूट पड़ीं। अबला समझी जाने वाली देवियों को दुर्गा के रूप में लड़ते देखकर प्रत्येक हिन्दू अपनी रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गया । ऐसी अवस्था को देख मुस्लिम गुण्डों का धैर्य टूट गया और वह भाग निकले।वह वीरांगना अपने पति के शव के पास बैठ गई ।अनेक स्त्री पुरुष उसके पास बैठकर शोक-संवेदना प्रकट करने लगे इस पर उसे वीरांगना ने कहा- यह शोक करने का समय नहीं है। मुझे गर्व है कि मेरा पति अपनी जाति की रक्षा के लिए बलिदान हुआ है।
पश्चिमी पंजाब की भांति पूर्वी बंगाल में भी हिंदुओं पर भयंकर अत्याचार होने लगे बंगाली हिंदुओं ने पैदल ही भारत की ओर प्रस्थान कर दिया ,उनकी सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं था। जब यह समाचार दिल्ली पहुंचा तो सार्वदेशिक सभा ने उनकी सहायता और सेवा के लिए श्री ओमप्रकाश त्यागी को बंगाल भेजा । उन्होंने बंगाल के आर्य सज्जनों के सहयोग से अनेक सहायता केंद्र खोले जयनगर का केंद्र पाकिस्तान की सीमा से केवल 100 गज की दूरी पर था। एक रात पाकिस्तानी अन्सार गुंडो ने अचानक भारत भूमि की सीमा में 1000 गज भीतर घुसकर पाकिस्तानी झंडा गाढ़ दिया। जब इस घटना का पता ओमप्रकाश त्यागी को लगा तो उन्होंने रात में ही अपने तीन साथियों को साथ लेकर उस झंडे को उखाड़ने का निश्चय किया । दोनों ओर से गोलियां चलने लगी रात को 12:00 बजे श्री त्यागी जी ने इन आर्यवीरिं की सहायता से पाकिस्तानी झंडे को उखाड़ दिया ।पाकिस्तानी अन्सार गुण्डो से छीना हुआ यह ध्वज जब तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया गया तो उन्होंने आर्यवीरों के इस साहसिक कार्य के प्रति श्रद्धावनत होते हुए कहा कि इस झण्डे का उचित स्थान तो दयानन्द भवन है । सार्वदेशिक सभा के कार्यालय में रखा हुआ यह ध्वज आर्यवीर दल के शौर्य की अब भी याद दिला रहा है।
हैदराबाद में रजाकारों से संघर्ष
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हैदराबाद में निजाम सरकार के संकेत पर रजाकारों का आन्दोलन खड़ा हुआ। उन्होंने वहाँ के हिन्दुओं पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये तो वहाँ के आर्यवीरों ने उनका डटकर सामना किया। हैदराबाद की सीमा पर उमरखेड़ आदि स्थानों पर शिविर लगाकर आर्यवीरों ने रजाकारों के साथ-साथ सशस्त्र संघर्ष किया। उन्होंने उमरी बैंक को लूटा और समस्त धनराशि सरदार पटेल को सौंप दी। दो नवयुवकों ने हैदराबाद के नवाब की गाड़ी पर बम फेंका ।
भारत सरकार द्वारा वहाँ किए गए पुलिस एक्शन के समय आर्यवीरों ने पुलिस की हर संभव सहायता की। भारत सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने कहा भी था कि यदि हैदराबाद में आर्य समाज का सहयोग नहीं मिलता तो उन्हें इतनी आसानी से विजय नहीं किया जा सकता था ।
आर्यवीर दल के अन्य सेवा- कार्य
संस्कृति, शक्ति, सेवा -यह आर्यवीर दल के तीन उद्देश्य हैं। भारत के स्वाधीन हो जाने पर सुरक्षा के कार्य की विशेष आवश्यकता न रही इससे कार्य में कुछ शिथिलता भी आई , क्योंकि सेवा को सभी प्रशिक्षण देने के उपरान्त अपना शौर्य प्रदर्शित करने का अवसर न मिले तो उसका उत्साह कम होना स्वाभाविक है ।परन्तु आर्य महासम्मेलनों में प्रबन्ध एवं प्राकृतिक आपदाओं से जूझने का क्रम जारी रहा। सन् 1950 के अगस्त मास में असम राज्य में भयंकर भूकम्प आया । महाविनाश के इस भीषण तांडव से बचे हुए लोगों की दयनीय स्थिति को देखकर आर्य समाज ने इस समय भी प्रशंसनीय कार्य किया । आवागमन के सभी मार्गों के अवरुद्ध हो जाने पर भी श्री ओम प्रकाश जी त्यागी ने अपने आर्यवीरों को साथ लेकर बेड़ा बना कर उफनती ब्रह्मपुत्र नदी को पार किया और डिब्रूगढ़ में सेवा- कार्य के लिए केन्द्र स्थापित करके कार्य प्रारम्भ कर दिया । सरकार ने हवाई जहाजों से गिरायी गई सामग्री का पीड़ित जनों में आवंटन करने का कार्य आर्य समाज और आर्यवीर दल के कार्यकर्ताओं के सुपुर्द किया।
इसी समय 1950 में उड़ीसा को भी बाढ़ ने अपनी चपेट में ले लिया। श्री ओम प्रकाश जी त्यागी ,पण्डित बाल दिवाकर हंस एवं अन्य आर्यवीरों को लेकर वहाँ पहुंचे। विदेश में गये आर्यवीर दल के दो कार्यकर्त्ताओं पं० उषर्बुध और धीरेन्द्र शास्त्री ने 5000 नए वस्त्र उड़ीसा भिजवाये। इसी प्रकार 1956 में दिल्ली की बाढ़, मोरबी (गुजरात )में जलाप्लावन और अन्य अनेक स्थानों पर आर्यवीरों ने पीड़ित जनता की मनोयोग से सहायता की।
उत्तरकाशी का भूकम्प
सन् 1991 में उत्तरकाशी और आसपास के क्षेत्र में बहुत जोर का भूकम्प आया। अनेक गांव भूमिसात् हो गये । जान-माल की भारी क्षति हुई। दिल्ली आर्यवीर दल का यह एक दस्ता सभा प्रधान स्वामी आनन्द बोध जी से अनुमति और धनराशि प्राप्त कर अपनी एम्बुलेंस लेकर अगले दिन रवाना हो गया। श्री विनय आर्य संचालक दिल्ली, विजय आर्य, योगेश, बृजेश एवं अन्य आर्यवीरों ने तीन मास तक इस क्षेत्र में सेवा कार्य करते हुए लाखों रुपयों की सामग्री वितरित की। ( टटीर)मेरठ क्षेत्र के आर्यवीरों ने 56 ट्रक खाद्य सामग्री एकत्रित करके प्रधान संचालक डॉ० देवव्रत आचार्य के साथ उत्तरकाशी भिजवायी। ब्रह्मचारी राज सिंह आर्य महामन्त्री ने भी मनोयोग से कार्य किया। सहारनपुर, टटीरी, पानीपत और फरीदाबाद के आर्यवीर भी सेवा करने के लिए उत्तरकाशी पहुंचे।
इसी प्रकार 3 नवम्बर 1983 को लातूर महाराष्ट्र क्षेत्र में आए भूकम्प का समाचार मिलने पर आर्यवीर दल दिल्ली, गुरुकुल आमसेना, आर्यवीर दल लातूर के आर्यवीरों ने प्रशंसनीय कार्य किया। आर्य वीर दल लातूर के कार्यकर्त्ता श्री वेंकटेश हालेंगे, प्रो० अरुण मदन सुरे, गुलबर्गा के श्री गोविंद राम तथा अन्य आर्य वीरों ने अनाथ बच्चों के लिए बनाए गए आर्य अनाथालय में अनेक मास सेवा कार्य किया ।
आर्य महासम्मेलन की सुरक्षा व्यवस्था
सन् 1975 में आर्य समाज की स्थापना शताब्दी मनाई गई जिसमें हजारों आर्यवीर सम्मिलित हुए शोभायात्रा में आर्यवीरों ने मल्लखम्भ को ट्रॉली में लगाकर भव्य प्रदर्शन किया । श्री राम गोपाल जी शालवाले ने स्वयं आर्यवीरों के इस आकर्षक कार्यक्रम को देखा और इसके आयोजक डॉ॰ देवव्रत का पुष्पाहार से स्वागत किया। दरियागंज से रामलीला मैदान तक हजारों लोगों ने आर्यवीरों के साहसिक और मनोरंजक कार्यक्रम को देखकर करतल ध्वनि और पुष्प वृष्टि से स्वागत किया। 26- 27 दिसम्बर को सायंकाल कन्या गुरुकुल नरेला की आर्यवीरांगनाओं के साहसिक और वीरोचित व्यायाम प्रदर्शन को देखकर दर्शक रोमांचित हो उठे। जोधपुर के आर्यवीरों ने भी लाठी और जिमनास्टिक के खेल दिखलाये। सम्मेलन की समस्त सुरक्षा का उत्तरदायित्व आर्यवीरों ने ही लिया था ।
इसी प्रकार 1983 ई० में महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी अजमेर में मनाई गई जिसमें देश-विदेश के कई लाख आर्य जन सम्मिलित हुए। प्रधान संचालक पं० बाल दिवाकर हंस और उप प्रधान संचालक डॉ० देवव्रत आचार्य के पुरुषार्थ से 1000 आर्यवीर सेवा और सुरक्षा कार्य के लिए अजमेर पहुंच गये। इतने बड़े सम्मेलन में चोर उचक्कों का प्रवेश भी स्वाभाविक था। कुछ श्रद्धालु जनों के स्नान करते समय उठाईगीरों ने उनकी बण्डियों और अन्य कीमती सामान पर हाथ साफ करना प्रारम्भ कर दिया । यह सूचना पहुंचते ही आर्यवीर दल के अधिकारियों ने सर्वत्र अपने गुप्तचरों का जाल बिछा दिया । परिणामस्वरुप अनेक लुटेरे पकड़े गए उन्होंने जिनको यथावश्यक दण्ड देकर पुलिस के सुपुर्द कर दिया गया । आर्यजनता ने चैन की सांस ली। सुदूर से आए आर्य सज्जन और माता- बहनों ने आर्यवीर दल के सेवा शिविर के निकट लगाए गए टेण्टों को सुरक्षित समझकर वहां निवास किया ।इसके अतिरिक्त भोजन वितरण, सम्मेलन की व्यवस्था और सुरक्षा का दायित्व भी आर्य वीरों ने कुशलता पूर्वक वहन किया। शोभायात्रा और सायंकाल सभा स्थल से कुछ दूर प्रदर्शन को भारी संख्या में आर्य जनता ने देखकर बहुत सराहना की ।
आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश द्वारा लखनऊ में किए गए आर्य महासम्मेलन में भी हजारों आर्य वीरों ने पूर्ण मनोयोग से सेवा और सुरक्षा का दायित्व वहन किया ।
सार्वदेशिक आर्यवीर दक के प्रधान संचालक स्वामी श्रद्धानंद जी के बलिदान के पश्चात् नारायण स्वामी की अध्यक्षता में आर्य-रक्षा समिति का गठन हुआ और आर्यवीर दल के संगठन का कार्य श्री शिवचन्द्र जी को दे दिया गया। वे रक्षा समिति के सहायक मंत्री थे। उनके पुरुषार्थ से उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों पर आर्यवीर दल की स्थापना हुई और पहला शिविर 1940 में गुरुकुल डोरली (मेरठ) में लगाया गया । मेरठ में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश की स्थापना हुए 50 वर्ष होने पर अर्धशताब्दी मनाई गयी । इसी अवसर का लाभ उठाकर आर्यवीर दल का सम्मेलन भी आयोजित किया गया। 1940 तक आर्यवीर दल के पदाधिकारियों के सत्प्रयास से अनेक प्रान्तो में आर्यवीर दल सक्रिय होकर कार्य करने लगा । इसी मध्य सार्वदेशिक सभा को दक्षिण भारत में प्रचार करने के लिए एक ऐसे उपदेशक की आवश्यकता थी जो अंग्रेजी भाषा अच्छी तरह से जानता हो , श्री शिव चन्द्र जी इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। अतःउनके दक्षिण भारत में जाने के पश्चात् संचालक का स्थान रिक्त हो गया । उनके पुरुषार्थ से ही आर्यवीर दल की नींव सुदृढ़ हुई इसमें संदेह नहीं।
श्री ओमप्रकाश त्यागी
जैसा पहले कहा जा चुका है कि अंग्रेजों की कूटनीति से हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों का प्रारम्भ हो गया और आर्य समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवेश एवं सिद्धांतों में एकरूपता ना होने के कारण उसको आर्य समाज से निष्कासित किए जाने पर किसी ऐसे नवयुवक की आवश्यकता थी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विकल्प बन सके और सांप्रदायिक दंगों में आर्य जनता एवं नेताओं की सुरक्षा कर सके । सौभाग्य से आर्यवीर दल को ऐसा नवयुवक मिल ही गया । श्री त्यागी जी के पुरुषार्थ से आर्यवीर दल का कार्य इतना बढ़ा कि बन्नू कोहाट से बंगाल तक आर्यवीर दल के 10000 नवयुवक सदस्य बन गये। आर्यवीर दल में धार्मिक असहिष्णुता के स्थान पर चरित्र- निर्माण पर विशेष बल दिया गया। इसका प्रभाव यह हुआ कि आर्यवीर दल की शाखों में आर्य परिवारों के साथ-साथ हिन्दू परिवारों के बच्चे बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित होने लगे। अनेक स्थानों पर मुस्लिम बच्चे भी शाखों में भाग लेते रहे और यह परम्परा आज तक भी चल रही है।
श्री त्यागी जी में आकर्षक व्यक्तित्व, सुदृढ़ शरीर वीरोचित भाषण और कठिनाइयों से विचलित न होकर उनका धैर्य से मुकाबला करना आदि ऐसे गुण थे जो शहर ही युवकों को आर्यवीर दल में आकर्षित करते रहे । इसके अतिरिक्त देश में सांप्रदायिक दंगों के कारण लोगों को किसी क्षात्र धर्म के संगठन की आवश्यकता थी जो विपत्ति के समय उनकी सुरक्षा भी कर सके।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हो गया । सुरक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं रही गई थी। इस बीच एक युवक ने महात्मा गाँधी को गोली मारकर हत्या कर दी ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । आर्यवीर दल भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। इसके साथ ही आर्य समाज के नेताओं को आर्यवीर दल का बढ़ता दबदबा सहन नहीं हुआ । फलस्वरुप सार्वदेशिक सभा ने यह कहकर आर्यवीर दल को भंग कर दिया कि अब इसकी आवश्यकता नहीं रह गई है । पं०सुखदेव जी नकुड और अन्य आर्यवीरों ने श्री त्यागी जी से परामर्श करके अंतर्राष्ट्रीय आर्यवीर दल का गठन कर लिया और स्वतन्त्र होकर पुनः शाखायें लगने लगे। आर्यवीरों के उत्साह और लगन को देखकर सार्वदेशिक सभा के अधिकारियों को समझ आई और उन्होंने श्री त्यागी जी को बुलाकर पुनः सार्वदेशिक आर्यवीर दल का कार्य सम्भाल लेने को कहा। दल का नवीन संविधान सभा द्वारा पास किया गया जिसमें सार्वदेशिक आर्यवीर दल को सार्वदेशिक सभा के अंतर्गत कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई । प्रधान संचालक का निर्वाचन सार्वदेशिक आर्यवीर दल समिति द्वारा किया जाने लगा जिसमें सार्वदेशिक सभा का मन्त्री, कोषाध्यक्ष और सभा द्वारा मनोनीत रक्षा-सचिव, कुल तीन व्यक्ति अन्तरंग के सदस्य और शेष प्रांतीय, देशीय,संचालक और अन्य अधिकारी होते हैं। ऐसे ही प्रांतीय आर्यवीर दल समिति का गठन किया गया। स्थानीय शाखाओं में भी आर्य समाज के दो- तीन व्यक्ति लेने का प्रावधान है। इस कार्य के पीछे यही उद्देश्य था कि कहीं आर्यवीर दल की गाड़ी आर्य समाज की पटरी से न उतर जाये । यद्यपि इस प्रयास से गाड़ी पटरी से तो नहीं उतरी परंतु उसकी गति काफी मन्द हो गई । इसी बीच श्री त्यागी जी के समर्थकों ने उनको राजनीति के रणांगन में उतारने का निश्चय किया। जिस अग्नि को दिग्गज नेता बुझा न सके वही अपने अंतर्द्वन्द्वों में उलझ कर स्वयमेव मन्द पड़ गई और यही समय आर्यवीर दल का शून्य काल जैसा रहा ।
कुछ उत्साही कार्यकर्त्ता इस समय भी सक्रिय रहे परन्तु नेतृत्व विहीन संगठन कब तक आगे बढ़ेगा ? इस दौड़ में अन्य संगठन आगे निकल गए जहाँ आर्यवीर दल सक्रिय रहा वहाँ उनकी दाल नहीं गली । जब कोई पुराना कार्यकर्त्ता श्री त्यागी जी से आर्यवीर दल के स्थान पर राजनीति में कूद पड़ने का उपालम्भ देता तो वे गम्भीर हो जाते। उनकी पारिवारिक स्थिति भी एक कारण रही । अन्य संगठनों का कुचक्र भी चला। कुछ समय के लिए आर्यवीर दल की गति में ठहराव-सा आ गया। इतना अवश्य कहना चाहिए आर्यवीर दल को एक सशक्त संगठन बनाने का श्रेय श्री त्यागी जी को ही है । यदि वे इसी में कुछ समय और लगाकर अपना उत्तराधिकारी बनाकर पीछे से उसकी सहायता करते रहते तो संभव है बात कुछ और ही बनती । आखिर प्रत्येक दिन के पश्चात रात्रि भी होती ही है।
पं० नरेन्द्र जी हैदराबाद प्रधान संचालक बने
श्री ओम प्रकाश त्यागी के संसद सदस्य चुन लिए जाने के पश्चात् पं० नरेन्द्र जी हैदराबाद आर्यवीर दल के प्रधान संचालक बनाए गए उन्होंने हैदराबाद सम्मेलन से अवशिष्ट धनराशि को सार्वदेशिक सभा में स्थिर निधि में जमा कर दिया और उसके ब्याज से आर्यवीर दल की गतिविधियों को चलाने का निश्चय किया । निजाम हैदराबाद के विरुद्ध सत्याग्रह करने वाले नेताओं में वे अग्रणी रहे हैं । हैदराबाद रियासत में आर्य समाज को जीवित रखने का श्रेय उन्हीं को जाता है । 1975 में दिल्ली में सर्वाधिक सभा ने आर्य समाज स्थापना शताब्दी सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें हजारों आर्यवीरों ने पंडित नरेंद्र के नेतृत्व में कुशलता पूर्वक सभी प्रकार की व्यवस्था की जिम्मेदारी वहन की । उनका आर्यवीरों को दिया गया संदेश अब भी नवयुवकों में नव रक्त का संचार करता दिखाई देता है जिसके कुछ शब्द निम्न हैं –
“मेरा दृढ़ विश्वास है कि आर्य समाज आर्य युवकों को राष्ट्र- निर्माण का प्रशस्त मार्ग प्रदान कर सकता है। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा में मान्यता प्राप्त आर्य समाज की युवा शक्ति का एकमात्र वैधानिक संगठन ही है। देश की समस्त आर्य युवा शक्ति को इस दल में दीक्षित होना चाहिये । आज आर्य समाज रूपी माता की सेवा और रक्षा का भार आर्यवीरों के कन्धों पर ही आ पड़ा है। अतः मेरा समस्त आर्यवीरों से नम्र निवेदन है कि समय की तेज रफ्तार के साथ अपने कर्तव्य पथ पर निरन्तर बढ़ते चलें।”
कवि की ओजस्वी वाणी आर्यवीरों को झकझोर कर कह रही है-
चल रहीं घड़ियां चलें नभ के सितारे ।
चल रहीं नदियां चलें नभ के सितारे ।
चल रहीं सांसें किंतु ठहर जायें।
दो सदी पीछे कि तेरी लहर जाए ।।
उठ इरादों-सी मचल कर ।
दो हथेली हैं कि धरती गोल कर दे।
वेद की वाणी कि हो आकाशवाणी।
धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।
पं०नरेंद्र जी ने आर्य समाज शताब्दी समारोह के समय ही संन्यास ले लिया और स्वामी सोमानंद सरस्वती बन गये । काश उनका नेतृत्व और मार्गदर्शन आर्यवीर दल को उनके यौवन काल में ही मिल जाता तो इसका इतिहास ही कुछ और होता क्योंकि वह आजीवन अविवाहित रहकर आर्य समाज का कार्य करते रहे कुछ समय के पश्चात उनका स्वर्गवास हो गया ।
पं० बाल दिवाकर हंस प्रधान संचालक
पं० नरेंद्र जी की मृत्यु के पश्चात् पं० बाल दिवाकर हंस को प्रधान संचालक बनाया गया। आर्य संस्कार उनके माता जी द्वारा लोरियों में ही उन्हें मिले । युवावस्था में कांग्रेस के द्वारा चलाये गये सत्याग्रह आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया था । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मेवात क्षेत्र में हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए मेवात मण्डल के द्वारा दीर्घकाल तक संघर्ष करते रहे । कांग्रेस में सक्रिय रहने के कारण जीवन में अनेक अवसर ऐसे आए कि वे चाहते तो विधायक का टिकट पाकर या अन्य किसी बड़े पद पर जाकर मजे में जीवन व्यतीत कर सकते थे। परन्तु वे सच्चे ब्राह्मण थे । वह किसी प्रलोभन में ना फंस कर राजस्थान आर्यवीर दल के अधिष्ठाता बनकर सेवा करते रहे । प्रधान संचालक पद पर रहते हुए संकल्प दक्षिणा लेकर ही निष्ठा पूर्वक कार्य में संलग्न रहते थे। यद्यपि वानप्रस्थ की आयु में उन्होंने प्रधान पद संभाला, परन्तु फिर भी उनकी वाणी में ओज, तेज, स्पष्टवादिता, सादगी भरा जीवन और आर्यवीर दल का दीर्घकालीन अनुभव ऐसे गुण थे कि आर्यवीरों ने उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया। मुरझाए वृक्ष की जड़ों को मानो कुछ पानी मिला और उसमें जहाँ-तहां नव पल्लवों का प्रस्फुटन होने लगा ।
नये रक्त का आगमन
“ जिन ढूंढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।” चाणक्य को चन्द्रगुप्त, गुरु गोविंद सिंह को बंदा बैरागी, समर्थ गुरु रामदास को शिवाजी,अकस्मात् ही नहीं मिल रहे गए थे। अपनी स्वाभाविक अवस्था में हीरा एक कंकड़ जैसा ही होता है परन्तु असली हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है। जैसे एक अखाड़ा चलने वाले युवक ओमप्रकाश त्यागी के गुणों की पहचान कर सार्वदेशिक सभा ने उन्हें आर्यवीर दल का प्रधान सेनापति बना दिया और उन्होंने आर्यवीर दल को अनुशासित अर्ध सैनिक संगठन में बदलकर कीर्तिमान स्थापित किया उसी प्रकार श्री बाल दिवाकर हंस का संयोग या सौभाग्यवश डॉ० देवव्रत आचार्य का सहयोग प्राप्त हुआ । डॉ० देवव्रत आचार्य संस्कृत व्याकरण और दर्शन के आचार्य अस्त्र- शस्त्र के पारंगत विद्वान्, धनुर्वेद में पीएचडी की उपाधि प्राप्त,त्यागी, तपस्वी, व्यायामाचार्य और योगाचार्य के रूप में समस्त आर्य जगत् में विख्यात हैं जिन्होंने अपना सारा यौवन युवकों को व्यायाम का प्रशिक्षण देने में ही लगाया है। उन्हें आर्यवीर दल का उप-प्रधान संचालक बनाया गया।
गुरुकुल कांगड़ी का शिविर
सन् 1981 में गुरुकुल कांगड़ी में गीष्म अवकाश के समय सार्वदेशिक आर्यवीर दल का शिविर लगाया गया जिसमें सारे देश से चुने हुए 200 आर्यवीरों ने भाग लिया। डॉ॰ देवव्रत आचार्य ने अकेले ही 15 दिन तक प्रशिक्षण का कार्य भार सम्भाला दीक्षान्त समारोह में श्री राम गोपाल शाल वाले प्रधान सार्वदेशिक सभा और श्री ओम प्रकाश त्यागी महामंत्री सार्वदेशिक सभा तथा अन्य अनेक नेताओं का आगमन हुआ । आर्यवीरों के शारीरिक प्रदर्शन को देखकर श्री त्यागी जी की प्रसन्नता का तापरवार न रहा । अपने द्वारा आरोपित वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित होते देखकर किसको प्रसन्नता ना होगी? उसके पश्चात् सारे देश में शिविरों की न समाप्त होने वाली परम्परा चल पड़ी। अजमेर में एक हजार आर्यवीरों को लेकर पहुंचना, लखनऊ में उत्तर प्रदेश सभा के सम्मेलन, दिल्ली में सार्वदेशिक सभा के सम्मेलन और अन्य प्रान्तीय सम्मेलनों में आर्यवीरों ने जिस तत्परता से सेवा और सुरक्षा का कार्य किया उसकी सभी ने भूरि प्रशंसा की है ।
डॉ०देवव्रत आचार्य प्रधान संचालक पद पर अभिषिक्त
जिस संगठन के नेता की यह योग्यता नहीं होती कि वह अपने कार्यकाल में ही योग्य उत्तराधिकारी की तलाश करके उसे उत्तरदायित्व देकर पीछे से उसका सहयोग करता रहे व संगठन आगे चलकर छिन्न-भिन्न हो जाता है। निर्वाचित पद्धति में या दोष है कि कई बार अयोग्य व्यक्ति भी दलगत राजनीति के चलते उच्च पदों पर आरूढ़ हो जाते हैं। इसलिए हमारी समझ में अपने उत्तराधिकारी को स्वयं अपने स्थान पर नियुक्त करके उत्तरदायित्व देना अधिक व्यावहारिक है। कदाचित् श्री ओम प्रकाश त्यागी अपने कार्यकाल में ही इस ओर ध्यान देकर योग्य व्यक्ति को प्रधान संचालक बना देते तो आर्यवीर दल का कार्य मन्द नहीं पड़ता। श्री पं० बाल दिवाकर हंस को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने इस सच्चाई को समझकर स्वेच्छा से अपना पद त्याग कर 11 वर्ष से अपनी छत्रछाया में संवर्धित और प्रशिक्षित डॉ॰ देवव्रत आचार्य को 14 सितम्बर सन् 1991ई० को आर्य समाज दीवान हाल में सार्वदेशिक आर्य वीर दल समिति की साधारण बैठक में प्रधान संचालक पद पर अभिषिक्त कर दिया । यह समायोजित कदम था । बैठक में उपस्थित सदस्यों ने करतल ध्वनि से इसका स्वागत किया सार्वदेशिक सभा के प्रधान स्वामी आनन्द बोध ने पं० बाल दिवाकर हंस की सेवाओं का उल्लेख करते हुए निवर्तमान प्रधान संचालक का पुष्पमाला द्वारा स्वागत किया और तत्पश्चात् नवनिर्वाचित प्रधान संचालक डॉ॰ देवव्रत आचार्य का स्वागत करते हुए पद की गरिमा एवं कार्य के प्रति सजग रहते हुए दल के कार्य के आगे बढ़ाने का आह्वान किया। डॉ॰ देवव्रत आचार्य ने श्री हंस जी के कार्यों की प्रशंसा करते हुए भविष्य में भी सहयोग के लिए प्रार्थना की । श्री हंस जी ने आजीवन सहयोग का आश्वासन दिया ।
भोजनोपरान्त प्रधान संचालक द्वारा कार्यकारिणी का गठन और प्रान्तीय संचालक की नियुक्ति करके आगामी वर्ष का कार्यक्रम निश्चित किया। शांति पाठ के पश्चात् सभा समाप्त हुई ।
ब्रह्मचारी राजसिंह की मन्त्री पद पर नियुक्ति
राजा का समस्त व्यवहार मन्त्री पर निर्भर करता है। प्रधान संचालक डॉ॰ आचार्य भी ऐसे योग्य युवक की तलाश में थे जो गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारी से मुक्त होकर 24 घंटे आर्यवीर दल के लिए प्रदान कर सके। “ जहाँ चाह वहाँ राह।” ऐसा अवसर आ ही गया। ब्र० राजसिंह जी ने अपने पुरुषार्थ से दिल्ली में केंद्रीय आर्य युवक परिषद् का गठन किया और अजमेर शताब्दी में आर्यों को की स्पेशल रेलगाड़ी लेकर गये। वे आचार्य देवव्रत जी के सम्पर्क में पहले से ही थे। परिषद् से पहले वे भी आर्यवीर दल के सक्रिय कार्यकर्ता रहे उन्होंने परिषद् के कार्य को श्री अनिल आर्य को देकर फिल्म- निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश किया। चार-पांच वर्ष के पश्चात् जब वे दिल्ली वापस आए तो परिस्थितियों बदल गई थीं। आचार्य देवव्रत के सतत प्रयास से उन्होंने सार्वदेशिक आर्यवीर दल का महामन्त्री बनना स्वीकार किया और मार्च 1992 में उन्हें नियुक्ति पत्र दे दिया गया। अपने मधुर व्यवहार तथा कथा प्रवचनों के कारण दिल्ली के आर्य समाजों में उनकी प्रतिष्ठा थी। अतः यह निश्चय किया गया कि इस वर्ष जून मास में सारे देश का राष्ट्रीय शिविर दिल्ली में ही लगाया जाये। 5 से 20 जून तक महाशय चुन्नीलाल आर्य सरस्वती विद्या मंदिर में 500 आर्यवीरों का विशाल शिविर लगाया गया। शिविर समापन के समय दिल्ली के आर्य समाज और सभा के अधिकारियों ने भारी संख्या में उपस्थित होकर आर्यवीरों का उत्साह वर्धन किया। दिल्ली में आर्यवीर दल एक शक्ति बनकर उभरा । इसके पश्चात् सन् 1996 में पालम दिल्ली में 600 आर्यवीरों का विशाल शिविर ब्र० राजसिंह महामन्त्री और विनय आर्य संचालक आर्यवीर दल दिल्ली के पुरुषार्थ से लगाया गया । अन्तिम दिन यद्यपि वर्षा होती रही परन्तु फिर भी हजारों की संख्या में आर्य नर- नारी उपस्थित रहे।
आर्यवीर दल का कार्यक्षेत्र विदेश में भी बढ़ता जा रहा है । भारत के 16 प्रान्तों में आर्यवीर दल की हजारों शाखायें चल रही हैं । त्यागी, तपस्वी और आजन्म ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लेकर अनेक युवक कार्य कर रहे हैं । आर्य समाज के प्रहरी बनकर देव दयानन्द के सन्देश को समस्त विश्व में पहुंचाना ही आर्यवीर दल का संकल्प है ।
डॉ०राजेंद्र विद्यालंकार महामन्त्री पद पर नियुक्त किए गये और पद पर आने के बाद पूरे देश में एक बार फिर तूफानी दौरा प्रारम्भ हुआ है जिससे आर्यवीरों में नई जागृति आई है। आज उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश,राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरांचल और उत्तर प्रदेश में आर्यवीर दल के शिविरों और सम्मेलनों की धूम मचा रही है। प्रत्येक आर्यवीर का हृदय रूपी सागर अब ऋषिवर के ऋण को उतारने के लिए उमड़ रहा है। अतः मेरे सम्मानित आर्यो! अब आपको आशीर्वाद देकर आर्यवीरों को प्रोत्साहित करना है एवं प्रत्येक आर्य समाज में आर्यवीर दल का गठन करना है। प्रत्येक आर्य का पुत्र आर्यवीर दल की शाखा एवं शिविरों में जाए ऐसी मेरी पवित्र भावना है ।आशा है मेरे निवेदन को सार्थक करके आप अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करेंगे।
प्रो० राजेन्द्र विद्यालंकार , कुरुक्षेत्र