आर्य समाज का भविष्य आर्य वीर दल
संसार को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेकर एक महान् आत्मा ने सदियों के बाद इस धराधाम पर पदार्पण किया। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” के वैदिक उद्घोष के साथ वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। ऋषि ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जाति के कल्याणार्थ लगाया। ऋषि के तप के प्रभाव से अनेक समर्पित सैनिक इस वैचारिक आन्दोलन में कूद पड़े। पण्डित गुरु दत्त विद्यार्थी,महात्मा मुंशी राम, पण्डित लेखराम,लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज जैसे जीवनदानी महानुभावों ने आर्य समाज को एक ऐसा स्वरूप प्रदान किया कि विश्व स्तर पर वैदिक विचारधारा की दुन्दुभी बज गयी ।
डी०ए०वी० गुरुकुल व अनेक शिक्षण संस्थानों के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति हुई। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी ऋषि के दीवानों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। आर्य समाज का वैचारिक कुण्ड बलिदानों से प्रज्वलित हुआ। पहली आहुति ऋषिवर की लगी तो अग्न्याधान हुआ। इस प्रदीप्त कुण्ड को पं० लेखराम का बलिदान आर्य समाज की तकदीर व तहरीर के बन्द न होने का सन्देश दे दिया। इसी प्रचण्ड कुण्ड में स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान ने ऐसी ज्वाला का रूप लिया कि आर्य समाज के तत्कालीन नेतृत्व में आर्य समाज की सेना के गठन का निर्णय लिया। महात्मा नारायण स्वामी को यह गुरुतर कार्य सौंपा गया कि वे युवा सेवा ‘आर्यवीर दल’ का संविधान व स्वरूप निश्चित करें । 1926 ईस्वी में विधिवत् आर्यवीर दल की स्थापना हुई। स्थापना -काल से ही अपने उद्देश्य वाक्य- “संस्कृति, शक्ति, सेवा” के उद्घोष के साथ आर्यवीर दल आगे बढ़ता गया। प्रत्येक आर्य समाज में आर्यवीर दल की शाखा लगने लगी। प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से अनेक युवाओं ने संकल्प लेकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार किया।
यह तो रहा अतीत।अब वर्तमान पर विचार करें तो अनेक उतार- चढ़ावों का सामना करते हुए स्वामी डॉ० देवव्रत जी आचार्य के प्रधान सेनापतित्व में एक बार पुनः आर्यवीर दल उत्कर्ष की ओर अग्रसर है। प्रत्येक राज्य में समितियाँ कार्य कर रही हैं। परन्तु इस प्रगति से सन्तुष्ट होकर आर्य वीर निष्क्रिय न हो जायें इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि वर्तमान परिस्थितियां अत्यन्त चुनौतीपूर्ण हैं। सारा समाज पाश्चात्य संस्कृति के हमले से घायल- सा नजर आता है । युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है, बच्चे संस्कारहीन होकर दुर्गुणों व दुर्व्यसनों का शिकार हो रहे हैं। आर्य समाज रूपी मां कराह रही है, कहीं-कहीं तो मेरी माता अनार्यों के चंगुल में है। आर्य समाज के भवनों,संस्थानों पर नास्तिक स्वार्थी पाखण्डी बैठे हुए हैं। ऋषि के द्वारा लगाए गए वट वृक्ष की शाखाएं काटी जा रही हैं। कुछ पर दीमक लग चुकी है तथा कुछ सूखती जा रही हैं। ऐसे में केवल गुरुकुल व आर्य वीर दल ही आखिरी किरण दिखाई दे रहे हैं।
मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि संस्कृत व संस्कृति दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं- “संस्कृति संस्कृताश्रिता”। संस्कृत भाषा व आर्य शिक्षा की रक्षा गुरुकुल करते रहें तथा इस समाज में संस्कार देने, उत्साह भरने व युवाओं को भटकाव से बचाने का कार्य केवल आर्यवीर दल कर सकता है। ऋषि ने संसार के उपकार का दायित्व हमें सौंपा था जो की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति में ही निहित है। मेरे राष्ट्र में शारीरिक शक्ति से सम्पन्न, मानसिक संकल्पों से रक्षित,आत्मिक दृढ़ता से युक्त युवा समाज केवल आर्यवीर दल ही दे सकता है। आर्य समाज में प्रविष्ट होकर जीवन सुरक्षित व व्यवस्थित होता है यह सन्देश समाज तक देने वाले आचार्य,उपदेश,प्रचारक,पुरोहित अपने-अपने स्तर से निरंतर कार्य कर रहे हैं।उनका योगदान प्रशंसनीय है। साथ ही आर्यवीर दल ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा नींव से ही जीवन रूपी इमारत दृढ़ व सुन्दर बन सकती है। जीवन के प्रथम चरण से ही किशोर और किशोरियों को सुसंस्कृत,शक्तिसंपन्न बनाकर सेवा के लिए समर्पित करने का कार्य आर्यवीर दल व वीरांगना दल ही कर पायेंगे और आर्य समाज के मजबूत सदस्य व सभासद प्रविष्ट होंगे। आर्य समाज सर्वांगीण समृद्ध समाज का निर्माण करना चाहता है। एतदर्थ आओ हम सब मिलकर पं०सारस्वत मोहन मनीषी जी की पंक्तियों को दुहरा लें-
आर्यवीर दल सदा रहेगा प्राण आर्यों का।
इससे ही होना है नवनिर्माण आर्यों का।।
डॉ॰ विनय विद्यालंकार
अध्यक्ष संस्कृत विभाग राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रामनगर नैनीताल (उत्तराखण्ड)